पर्यटन ही नहीं नैनीताल के धार्मिक स्थल पर करते हैं आकर्षित

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नैनीताल। पर्यटन को लेकर देश-विदेशों में खासा चर्चित नैनीताल शहर न सिर्फ टूरिज्म बल्कि धार्मिक स्थलों का संगम भी कहा जाता है। यूं तो नैनीताल को लेकर कई पौराणिक कथाएं हैं। यहां के इतिहास पर नजर डाली जाए तो बताया जाता है कि प्राचीन काल में कुमाऊँ कई छोटी-छोटी रियासतों में विभाजित था और नैनीताल क्षेत्र एक खसिया परिवार की विभिन्न शाखाओं के अधीन था। कुमायूँ पर समेकित प्रभुत्व प्राप्त करने वाला पहला राजवंश चन्द वंश था। इस वंश के संस्थापक इलाहाबाद के पास स्थित झूसी से आये सोम चन्द थे, जिन्होंने लगभग सातवीं शताब्दी में कत्यूरी राजा की बेटी से शादी की। फिर कुमाऊं के अंदरूनी हिस्सों में बढ़ गए। दहेज के रूप में उन्हें चम्पावत नगर और साथ ही भाबर और तराई की भूमि दी गयी थी। चम्पावत में अपनी राजधानी स्थापित कर सोम चन्द और उनके वंशजों ने धीरे-धीरे आस पास के क्षेत्रों पर आक्रमण और फिर अधिकार करना शुरू किया। इस प्रकार चम्पावत ही वह नाभिक था जहाँ से पूरे कुमायूं पर चन्द प्रभुत्व का विस्तार हुआ। लेकिन यह पूरा होने में कई शताब्दियाँ लग गयी थी और नैनीताल तथा इसके आसपास का क्षेत्र अवशोषित होने वाले अंतिम क्षेत्रों में से एक था। भीमताल जो नैनीताल से केवल तेरह मील की दूरी पर है वहाँ तेरहवीं शताब्दी में त्रिलोकी चन्द ने अपनी सरहदों की रक्षा के लिए एक किला बनाया था। लेकिन उस समय नैनीताल स्वयं चन्द शासन के अधीन नहीं था और राज्य की पश्चिमी सीमा से सटा हुआ था। सन 1420 में राजा उद्यान चन्द के शासनकाल में चन्द राज्य की पश्चिमी सीमा कोशी और सुयाल नदियों तक विस्तृत थी लेकिन रामगढ़ और कोटा अभी भी पूर्व खसिया शासन के अधीन थे। किराट चन्द जिन्होंने 1488 से 1503 तक शासन किया और अपने क्षेत्र का विस्तार किया। आखिरकार नैनीताल और आस पास के क्षेत्र पर अधिकार स्थापित कर पाए जो इतने लंबे समय तक स्वतंत्र रहा था। खसिया राजाओं ने अपनी स्वतंत्रता का पुनः प्राप्त करने का एक प्रयास किया। 1560 में रामगढ़ के एक खसिया के नेतृत्व में उन्होंने सफलता के एक संक्षिप्त क्षण का आनंद लिया। लेकिन बालो कल्याण चंद द्वारा निर्ममतापूर्वक गंभीरता के साथ उन्हें वश में कर लिया गया। इस अवधि में पहाड़ी क्षेत्र के प्रशासन पर बहुत कम या कोई प्रयास नहीं किया गया था। आइन-ए-अकबरी में कुमाऊँ के जिन भी महलों का उल्लेख किया गया है वे सभी मैदानी क्षेत्रों में स्थित हैं। देवी चंद के शासनकाल के दौरान जो 1720 में राजा बने थे। कुमाऊं पर गढ़वाल के राजा द्वारा आक्रमण किया गया लेकिन उन्होंने क्षेत्र पर कोई कब्ज़ा नहीं किया। इसके बीस वर्ष बाद कुमाऊं की पहाड़ियों पर फिर से आक्रमण हुआ। इस बार रुहेलों द्वारा जिनके साथ वर्ष 1743 में युद्ध छिड़ गया था। रुहेला लड़ते हुए भीमताल तक घुस गए और इसे लूट लिया। हालाँकि उन्हें अंततः गढ़वाल के राजा द्वारा खरीद लिया गया, जिन्होंने उस समय कुमाऊं के तत्कालीन राजा कल्याण चंद के साथ एक अस्थायी गठबंधन बना लिया था। एक और आक्रमण दो साल बाद कल्याण चंद के प्रधान मंत्री शिव देव जोशी द्वारा निरस्त कर दिया गया। 1747 में कल्याण चंद की मृत्यु के साथ कुमायूं के राजाओं की शक्ति क्षीण होने लगी। अगले राजा उनके बेटे दीप चंद बने, एक बेहद कमजोर नौजवान जिसके हित पूरी तरह से धार्मिक थे और जिसने खुद को मंदिरों के निर्माण के लिए समर्पित कर दिया। भीमताल में स्थित भीमेश्वर मंदिर भी उन्होंने ही बनवाया था। हालांकि शिव देव जोशी अभी भी प्रधान मंत्री थे और उनके जीवनकाल के दौरान कुमाऊं समृद्ध रहा। 1764 में वह उत्परिवर्ती सैनिकों द्वारा मारा गया था और उस तारीख से सभी मैदानी क्षेत्र कुमाऊं के पहाड़ी राज्य से व्यावहारिक रूप से स्वतंत्र हो गया थे। शिव देव जोशी की मृत्यु के बाद कुमायूं के मामले और अधिक उलझन में पड़ गए, जहाँ एक और तत्कालीन रानी (दीप चंद की पत्नी) थी और दूसरी ओर मोहन सिंह एक युवा रौतेला। अगले कुछ वर्षों में मोहन सिंह ने रानी को मौत के घाट उतारने के बाद 1777 में दीप चंद और उनके दो बेटों की हत्या करने में सफलता प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने खुद को मोहन चंद के रूप में राजा घोषित किया। मोहन चंद का शासन जो जोशी परिवार के उत्पीड़न के लिए जाना गया। 1779 तक ही चला जब कुमाऊं पर गढ़वाल के राजा ललित शाह द्वारा आक्रमण किया गया था जिन्होंने क्षेत्र पर कब्ज़ा कर अपने बेटे प्रद्युम्न को सिंहासन पर बैठा दिया। मोहन चंद भाग गए और जोशी जिनमें से हरख देव अब प्रमुख थे नए राजा के प्रमुख सलाहकारों में शामिल हुए। प्रद्युम्न ने गढ़वाल को कुमायूं के अपने नए अधिग्रहित राज्य में जोड़कर राजधानी श्रीनगर ले जाने का प्रयास किया। उनकी अनुपस्थिति के दौरान मोहन चंद फिर सामने आए। उनके और जोशियों के बीच युद्ध हुआ जो गढ़वाल शासन के प्रति वफादार थे। मोहन चंद को मार दिया गया लेकिन उनकी जगह उनके भाई लाल सिंह ने ले ली थी और 1788 में जोशी लोगों की भीमताल के पास बुरी तरह से हार हुई उसके बाद लाल सिंह सर्वोच्च हो गए और अधिकतर जोशियों को मार दिया गया। वहीं पौराणिक कथा के अनुसार दक्ष प्रजापति की पुत्री उमा का विवाह शिव से हुआ था। शिव को दक्ष प्रजापति पसन्द नहीं करते थे परन्तु यह देवताओं के आग्रह को टाल नहीं सकते थे इसलिए उन्होंने अपनी पुत्री का विवाह न चाहते हुए भी शिव के साथ कर दिया था। एक बार दक्ष प्रजापति ने सभी देवताओं को अपने यहाँ यज्ञ में बुलाया परन्तु अपने दामाद शिव और बेटी उमा को निमन्त्रण तक नहीं दिया। उमा हठ कर इस यज्ञ में पहुँची। जब उसने हरिद्वार स्थित कनरवन में अपने पिता के यज्ञ में सभी देवताओं का सम्मान और अपना और अपने पति का निरादर होते हुए देखा तो वह अत्यन्त दुःखी हो गयी। यज्ञ के हवनकुण्ड में यह कहते हुए कूद पड़ी कि श्मैं अगले जन्म में भी शिव को ही अपना पति बनाऊँगी। आपने मेरा और मेरे पति का जो निरादर किया इसके प्रतिफल स्वरुप यज्ञ के हवन कुण्ड में स्यवं जलकर आपके यज्ञ को असफल करती हूँ। जब शिव को यह ज्ञात हुआ कि उमा सति हो गयी तो उनके क्रोध का पारावार न रहा। उन्होंने अपने गणों के द्वारा दक्ष प्रजापति के यज्ञ को नष्ट-भ्रष्ट कर डाला। सभी देवी-देवता शिव के इस रौद्र-रूप को देखकर सोच में पड़ गए कि शिव प्रलय न कर ड़ालें। इसलिए देवी-देवताओं ने महादेव शिव से प्रार्थना की और उनके क्रोध के शान्त किया। दक्ष प्रजापति ने भी क्षमा माँगी। शिव ने उनको भी आशीर्वाद दिया। परन्तु सति के जले हुए शरीर को देखकर उनका वैराग्य उमड़ पड़ा। उन्होंने सति के जले हुए शरीर को कन्धे पर डालकर आकाश भ्रमण करना शुरु कर दिया। ऐसी स्थिति में जहाँ-जहाँ पर शरीर के अंग गिरे वहाँ-वहाँ पर शक्ति पीठ हो गए। जहाँ पर सती के नयन गिरे थे वहीं पर नैनादेवी के रूप में उमा अर्थात् नन्दा देवी का भव्य स्थान हो गया। आज का नैनीताल वही स्थान है जहाँ पर उस देवी के नैन गिरे थे। नयनों की अश्रुधार ने यहाँ पर ताल का रूप ले लिया। तब से निरन्तर यहाँ पर शिवपत्नी नन्दा की पूजा नैनादेवी के रूप में होती है।


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